शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

कितना ग़म है...



कितना ग़म है...

कितना ग़म है..।

गहराई तक है फिर भी कुछ कम है।

उलुल-जुलूल में दिन निकल जाता  है

कोरी बैलगाड़ी कोरी जिन्‍दगी

आज वस हाथ मलते ही फिसल जाता है।

अंजुमन है पुरी दुनिया हँसी- खेल- रोष में

पुरा समाज पटा है फिर भी कोई है

जो  इन सब से कटा-कटा है।

सुना था किस्‍से –कहानियों में कोई परी आती है,

सपनों को सच कर जाती है।

आज परी आती तो है पर सपनों में ही सिमट जाती है।

जिधर देखता हूँ वस एक ही भम्र है।

हम-तुम है और.... कितना ग़म है।

 

 --- आतिश

 


 

     


1 टिप्पणी:

  1. जिधर देखता हूँ वस एक ही भम्र है।

    हम-तुम है और.... कितना ग़म है।
    बहुत ही मार्मिक रचना!
    दिल को छू गई सच में जिंदगी के हकिकत को बयां करती बहुत ही मार्मिक

    जवाब देंहटाएं

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