जी चाहता है...
क्यों गुजर जाते है पल,
क्यों लौटकर नहीं आते सदियां वो कल।
क्यों किसी के वस्ती में
ठहर जानें को जी चाहता है।
क्यों किसी के पहलु में
विखर जाने को जी चाहता
है।
खिंची है सफेदी पर यादों कि काली लकिर,
क्यों वर वक्त ढुंढ़ ले आते है मुझें
मन को चुभने वाले वो तीर !
क्यों तन्हाई के धागों से लिपटकर
रोने
को जी चाहता हैं।
क्यों किसी कि आतिश में फिर
जल जाने को जी चाहता है।
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आतिश
बहुत ही उम्दा और भावात्मक रचना!
जवाब देंहटाएंकाश गुजरे हुए वक्त में जाने का भी कोई रास्ता होता!
धन्यवाद! मेरी रचनाओं को सराहने के लिए।
हटाएंवैसे आपकी पंक्तियां भी heart touching होती है।
धन्यवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद ! अपना सहयोग युहीं बनायें रखें।
जवाब देंहटाएंइस चर्चा कैसे शामिल हो सकता हूँ?
"नदी तुम बहती रहो"(चर्चा अंक-4149)क्लिक करेंगे तो आप प्रस्तुति पर पहुंच जाएंगे जिसमें अन्य ब्लॉगस् के साथ आपकी रचना का लिंक भी मिलेगा।आप फॉलोअर्स का widgetभी लगाइए जिससे आपको अन्य ब्लॉगरस पढ़े फॉलो करें । अनन्त शुभकामनाएं आपकी लेखन यात्रा हेतु ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! मान्यवर ,
हटाएंसुझाव एवं सहयोग बनाये रखें।
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई।
सादर
धन्यवाद ! मैम
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! सर जी,
हटाएंबहुत मर्मस्पर्शी सृजन, पर प्रश्न ऐसे हैं जो अनुत्तरित हैं, अपना ही अंतस मौन मंथन में भटक के बारे बार पूछता है, बस उतर नहीं देता।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
बहुत-बहुत धन्यवाद !
हटाएंसुझाव और सहयोग देते रहें।
आदणीय धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंचुंकि मैं नया हूँ मेरी रचनाओं पर नजर बनायें रखें। यदि कोई श्रुटि हो तो कृप्या सुझाव और सहयोग देते रहें।
पुनः धन्यवाद!
सुंदर सृजन आदरणीय , बहुत बधाइयाँ ।
जवाब देंहटाएंमान्यवर बहुत-बहुत धन्यवाद ।
हटाएंयुं मेरी रचनाओं पर नजर बनायें रखें यदि कोई सुझाव हो तो कृप्या दें।
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बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआदरणीय धन्यवाद ।
हटाएंकृप्या अपना सुझाव और सहयोग बनायें रखें ।
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