शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

रिश्वत ! एक सरकारी प्रथा


 



रिश्वत ! एक सरकारी प्रथा  

 

हाय ! हाय रे ! ये सरकारी प्रथा ...
धर्म-जात कुल का इसमें भेद नहीं
दिन हो या रात वक्त का कोई खेद नहीं
चपरासी से बाबू तक बड़ी निष्ठा से जिसे निभाता
है ... वही प्रथा रिश्वत कहलाता है / /
 
पचास हजार महिना कमाने वाला ... 
दिन के पचास रुपये कमाने वाले से 
रिश्वत माँगता है ... 
फिर स्वयं को बड़ा बाबू कह इतराता है / /
 
न्याय नीति धर्म कर्म कि बात करता ... 
पता नहीं कब लोभी मन के 
अधीन हो जाता है ... 
फिर स्वयं को पढ़ा-लिखा विद्वान बताता है / /
 
इज्ज़त मान-सम्मान कुल कि दुहाई देता ...
शब्दों कि गरिमा 
भुल वो जाता है ...
फिर स्वयं को राम सा चरित्रवान दिखाता है / / 
 
असभ्य समाज में सभ्य आचार का 
परचम लहराता ... 
दुसरे पल ही 
उसी परचम में लिपटकर 
मौन हो जाता है ... 
फिर स्वयं को " बरवरी " सा लाचार ...
अफसोस जताता है / /

हाय ! हाय रे ! ये सरकारी प्रथा ...

... आतिश

16 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी रचना।

    बस यह बात दुखद है कि इस सरकारी प्रथा में ईमानदार भी पिस जाते।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद ! मैम

      अपना स्नेह और सहयोग बनायें रखें !

      हटाएं
  2. उत्तर
    1. मित्र ! तहे दिल से धन्यवाद् !
      आते रहा करों ...

      हटाएं
  3. लोभ आदि विकारों के वशीभूत हुआ मानव और कर भी क्या सकता है, देवी माँ ही उसे सदबुद्धि दें

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद ! मैम !
      अपना स्नेह और सहयोग बनाए रखें ।

      हटाएं
  4. सत्य को अभिव्यक्त करती सार्थक रचना

    जवाब देंहटाएं
  5. पचास हजार महिना कमाने वाला ...
    दिन के पचास रुपये कमाने वाले से
    रिश्वत माँगता है ...
    फिर स्वयं को बड़ा बाबू कह इतराता है / /
    यही तो विडम्बना है...
    बहुत सटीक एवं लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  6. सब की ही प्रथा है ... सरकारी बाबू बदनाम हैं बस ...

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