रिश्वत ! एक सरकारी प्रथा
हाय ! हाय रे ! ये सरकारी प्रथा ...
धर्म-जात कुल का इसमें भेद नहीं
दिन हो या रात वक्त का कोई खेद नहीं
चपरासी से बाबू तक बड़ी निष्ठा से जिसे निभाता
है ... वही प्रथा रिश्वत कहलाता है / /
पचास हजार महिना कमाने वाला ...
दिन के पचास रुपये कमाने वाले से
रिश्वत माँगता है ...
फिर स्वयं को बड़ा बाबू कह इतराता है / /
न्याय नीति धर्म कर्म कि बात करता ...
पता नहीं कब लोभी मन के
अधीन हो जाता है ...
फिर स्वयं को पढ़ा-लिखा विद्वान बताता है / /
इज्ज़त मान-सम्मान कुल कि दुहाई देता ...
शब्दों कि गरिमा
भुल वो जाता है ...
फिर स्वयं को राम सा चरित्रवान दिखाता है / /
असभ्य समाज में सभ्य आचार का
परचम लहराता ...
दुसरे पल ही
उसी परचम में लिपटकर
मौन हो जाता है ...
फिर स्वयं को " बरवरी " सा लाचार ...
अफसोस जताता है / /
हाय ! हाय रे ! ये सरकारी प्रथा ...
... आतिश
अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंबस यह बात दुखद है कि इस सरकारी प्रथा में ईमानदार भी पिस जाते।
धन्यवाद ! मैम
हटाएंअपना स्नेह और सहयोग बनायें रखें !
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! मान्यवर !
हटाएंवाह..!
जवाब देंहटाएंमित्र ! तहे दिल से धन्यवाद् !
हटाएंआते रहा करों ...
लोभ आदि विकारों के वशीभूत हुआ मानव और कर भी क्या सकता है, देवी माँ ही उसे सदबुद्धि दें
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! मैम !
हटाएंअपना स्नेह और सहयोग बनाए रखें ।
सत्यता को दिखाती रचना
जवाब देंहटाएंमित्र ! धन्यवाद !
हटाएंसहयोग देते रहें |
सत्य को अभिव्यक्त करती सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंआदणीय ! तहे दिल से आभार ...
हटाएंसार्थक रचना
जवाब देंहटाएंमान्यवर ! बहुत बहुत शुक्रिया ।
हटाएंपचास हजार महिना कमाने वाला ...
जवाब देंहटाएंदिन के पचास रुपये कमाने वाले से
रिश्वत माँगता है ...
फिर स्वयं को बड़ा बाबू कह इतराता है / /
यही तो विडम्बना है...
बहुत सटीक एवं लाजवाब सृजन।
सब की ही प्रथा है ... सरकारी बाबू बदनाम हैं बस ...
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