गुरुवार, 5 अगस्त 2021

कुछ अधूरा सा...

 

कुछ अधूरा सा... 

कुछ दुर तक चला था,

कुछ पलकों पर उठाये हुए ।

कुछ ढुंढ रहा था,

कुछ युं बांहें फैलाये हुए ।

 

कुछ बिक चुका था,

कुछ बिकने को थे ।

कुछ कि आँखें खुली थी,

कुछ थक कर सो चुके थे ।

 

कुछ धुंधली सी यादों में,

कुछ खुली किताबों में ।

कुछ ढुंढता रहता हूँ,

कुछ अनसुलझे से सवालों में ।

 

कुछ तन्‍हाईयों को जीता हूँ,

कुछ को तन्‍हा छोड़ देता हूँ ।

कुछ ने राहें बदली है,

कुछ को आँखों में जगह देता हूँ ।

---

आतिश

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९-०८-२०२१) को
    "कृष्ण सँवारो काज" (चर्चा अंक-४१५१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. अप्रतिम रचना।
    गागर में सागर।

    जवाब देंहटाएं

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