कुछ अधूरा सा...
कुछ दुर तक चला था,
कुछ पलकों पर
उठाये हुए ।
कुछ ढुंढ रहा था,
कुछ युं बांहें फैलाये हुए ।
कुछ बिक चुका था,
कुछ बिकने को थे
।
कुछ कि आँखें
खुली थी,
कुछ थक कर सो
चुके थे ।
कुछ धुंधली सी
यादों में,
कुछ खुली किताबों
में ।
कुछ ढुंढता रहता हूँ,
कुछ अनसुलझे से
सवालों में ।
कुछ तन्हाईयों
को जीता हूँ,
कुछ को तन्हा
छोड़ देता हूँ ।
कुछ ने राहें बदली
है,
कुछ को आँखों में
जगह देता हूँ ।
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आतिश
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९-०८-२०२१) को
"कृष्ण सँवारो काज" (चर्चा अंक-४१५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
कृपया बुधवार को सोमवार पढ़े।
हटाएंसादर
आदरणीय धन्यवाद !
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंमान्यवर धन्यवाद!
हटाएंअप्रतिम रचना।
जवाब देंहटाएंगागर में सागर।
सादर धन्यवाद !
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