रिश्तों कि मनमोहक खुशवू...
रिश्तों कि मनमोहक खुशवू
दुषित क्यों हुई है जाती,
मन कि शंका सर्प बन क्यों
मन को ही है डसती जाती
मैं कहता ठहर-ठहर पर समय
निगोड़ी चलती जाती,
संभल संभलकर जितना चलुं वक्त कि डोरी
क्यों गले में उतनी कसती जाती ।
मौसम कई आये गये पर संबंधों में
हरियाली नहीं है दिखती ,
घर
बदला दहलीज बदली पर शक कि
स्याही
क्यों नहीं है मिटती ।
आज
जला फिर बुझेगां इन्सान कि
हर
चाह है आज इतनी सस्ती,
लुटती
सबरती इन्सानी जिन्दगी
इक
पल ठहर क्यों नहीं है सोचती ।
---
आतिश
मौसम कई आये गये पर संबंधों में
जवाब देंहटाएंहरियाली नहीं है दिखती ,
पता नहीं क्यों रिश्तों की नाजुक डोर कमजोर पड़ जाती है!
हम जितना सुलझाते है उतना ही उलझती जाती है!
बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना!
यथार्थ पर गहन चिंतन देती सुंदर पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसच्चाई से रूबरू कराती अत्यंत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंमहोदय ,
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद !
जीवन की हकीकत बयां करती सार्थक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंमाननीय ,
हटाएंसह सम्मान धन्यवाद !
समय समाज का यही सच है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन 👌
सादर
आदरणीय ,
हटाएंदिल से धन्यवाद!
महाशय ,
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को सम्मान देने के लिये -
हृदय से धन्यवाद ! आभार !
सच्चाई से रूबरू
जवाब देंहटाएं