शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

रिश्‍तों कि मनमोहक खुशवू...

 


रिश्‍तों कि मनमोहक खुशवू...

 

रिश्‍तों कि मनमोहक खुशवू

दुषित क्‍यों हुई है जाती,

मन कि शंका सर्प बन क्‍यों

मन को ही है डसती जाती

 

मैं कहता ठहर-ठहर पर समय

निगोड़ी चलती जाती,

संभल संभलकर जितना चलुं वक्‍त कि डोरी

क्‍यों गले में उतनी कसती जाती ।

 

मौसम कई आये गये पर संबंधों में

हरियाली नहीं है दिखती ,

घर बदला दहलीज बदली पर शक कि

स्‍याही क्‍यों नहीं है मिटती ।

 

आज जला फिर बुझेगां इन्‍सान कि

हर चाह है आज इतनी सस्‍ती,

लुटती सबरती इन्‍सानी जिन्‍दगी

इक पल ठहर क्‍यों नहीं है सोचती ।

--- आतिश

10 टिप्‍पणियां:

  1. मौसम कई आये गये पर संबंधों में
    हरियाली नहीं है दिखती ,


    पता नहीं क्यों रिश्तों की नाजुक डोर कमजोर पड़ जाती है!
    हम जितना सुलझाते है उतना ही उलझती जाती है!
    बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना!

    जवाब देंहटाएं
  2. यथार्थ पर गहन चिंतन देती सुंदर पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं
  3. सच्चाई से रूबरू कराती अत्यंत सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. जीवन की हकीकत बयां करती सार्थक अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
  5. समय समाज का यही सच है।
    बेहतरीन सृजन 👌
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. महाशय ,
    मेरी रचना को सम्मान देने के लिये -
    हृदय से धन्यवाद ! आभार !

    जवाब देंहटाएं

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