मंगलवार, 17 अगस्त 2021

बदनाम औरत

 


हाँ बदनाम औरत हूँ मैं

जश्‍नें महफिल किसी कि सजती रही,

मैं औरत थी – रोज लुटती थी

आज भी लुटती रही।

कल बोली लगती थी कोठो – चार दिवारों में

आज बिक जाती हूँ मैं,  

सरेआम गलियों और बाजारों में-- ।

कस्‍ती सी हूँ मैं,

लोग आते – जाते रहते हैं

किनारों को छुती हूँ रोज

पर कभी पार उतरती नहीं मैं-- ।

हाँ बदनाम औरत हूँ मैं ,

रोज चरित्र मेरा परखतें हैं लोग

शराफ़त जिनकी उतरती नहीं दिन के उजालों में ,

काला उजला उन्‍हें सब भाता है

वो लोग भी नंगें हो जाते है बदनाम अंधेरी गलियों में ।

--- आतिश

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