हाँ बदनाम औरत हूँ मैं…जश्नें महफिल किसी कि सजती रही,
मैं औरत थी – रोज लुटती थी
आज भी लुटती रही।
कल बोली लगती थी कोठो – चार दिवारों में
आज बिक जाती हूँ मैं,
सरेआम गलियों और बाजारों में-- ।
कस्ती सी हूँ मैं,
लोग आते – जाते रहते हैं
किनारों को छुती हूँ रोज
पर कभी पार उतरती नहीं मैं-- ।
हाँ बदनाम औरत हूँ मैं ,
रोज चरित्र मेरा परखतें हैं लोग
शराफ़त जिनकी उतरती नहीं दिन के उजालों में ,
काला उजला उन्हें सब भाता है
वो लोग भी नंगें हो जाते है बदनाम अंधेरी गलियों में ।
--- आतिश
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