सुबह – सुबह जिस रास्तें से मैं गुजरता हुँ उसी रास्तें में एक अधेड़ औरत अपने दरवाजे पर खड़ी एक ही दिशा में निहारे जा रही थी, उदास चेहरा लिये । पर बीच – बीच में वो मुस्काती भी। अगले दिन भी वो वहीं उसी दशा में नजर आई । ये सिलसिला कई दिन तक चला । फिर एक दिन उस दरवाजे पर भीड़ नजर आई , उस भीड़ के बीच से वेदना भरी चीख और रोने की आवाज आ रही थी। आगे बढ़कर देखा तो पाया कि भीड़ किसी को समझाने – संभालनें कि कोशिश कर रही थी । वो कोई और नहीं दरवाजें वाली औरत थी । पता चला आज उसकी पति का दशकर्म है ।
मैं अचंभित था, वो पिछले दिनों रोज दरवाजें पर खड़ी होकर उसके मृत
पति के नाम से जलाई गई उस दिपक को निहारती थी और अपने पति के साथ बितायें पलों को
याद कर मुस्कुराती तो कभी उदास हो जाती ।
सजल आँखें कुछ कहती है कुछ और नहीं इनमें
वस इक धुंधली सी तस्वीर तुम्हारी रहती है ।
‘जज्वातों की भाषा जो समझते है वहीं रिश्तों की परिभाषा को समझते हैं
।’
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आतिश
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